Banaras-Ki-Gali

बनारस की गली

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मैं, वो गली नहीं बनारस की,
जहां से तू बस यू ही मुड़ जाए।
मैं तो वो हूँ, जहाँ तू अक्सर लौट के आए,
जहाँ, तू, अक्सर लौट के आए।

 

मैं, महक नहीं उस इत्र की,
जो एक कोने में सिमट जाए ।
मैं तो खुशबू हूँ उस बारिश की जो समां में बिखर जाए।

 

मैं, वो लहर, नहीं हूँ नदी की,
जो तुझे छू कर वापस हो जाए।
पर वो उठती तरंग हूँ, जो तुझे शीतल कर जाए ।
मैं, वो शब्द नहीं,
जो किसी कागज़ पर गुम जाए।
मैं वो लफ्ज़ हूँ, जो महफ़िल की ग़ज़ल सजाए।
मैं, वो सपना नही,
जो नींद से उठ कर, भुला दिआ जाए।
मैं वो सपना हूँ जो, मन में अक्सर दोहराया जाए ।

 

मैं, वो किरण नहीं हूँ सूरज की,
जो यूं ही कहीं खो जाए ।
वो रौशनी हूँ जो इंद्रधनुष बन बिखर जाए।

 

मैं अधूरी नही ज़रूरी हू,
मैं ग़ज़ल का वो शब्द हूँ।
मैं शब्द का जज़्बात हूँ,
मैं जज़्बात की वो बात हूँ।

 

मैं कहानी का वो मोड़ हूँ,
मैं मोड़ का वो छोर हूँ।
मैं छोर का एक शोर हूँ।
मैं वो गली हूं बनारस की,
जहा, तू अक्सर लौट के आए ।
जहा, तू अक्सर लौट के आए ।

 

मैं कल्पना नहीं,
किरदार नहीं,
ख्याल नहीं,
मैं फैसला हूँ।
मैं कोई होड़ नही,
Dor nahi
mod नहीं,
मैं दौर हूँ।

 

मैं कविता नहीं,
कहानी नहीं,
अफसाना नहीं,
मैं संग्रह हूँ।
मैं, वो गली हूं बनारस की,
जहां तू अक्सर  लौट के आए ।
जहां तू अक्सर  लौट के आए।
 
मैं, बारिश की वो बूँद नहीं,
जो समुद्र में कहीं घुल जाए ।
मैं, हूँ वो बूँद जो सीप का मोती बन निखर जाए ।

 

मैं दिन का वो शोर नहीं,
जो भीड़ में खो जाए।
मैं तो वो नज़्म हूँ जो तू देर रात गुनगुनाए ।
मैं वो नींद का झोंका नहीं,
जो तुझे चौका कर चला जाए ।
पर सुबह की वो झपकी हूँ जो मीठा एहसास दिलाए।

 

मैं सुई नहीं हूँ घड़ी की,
जो  वक़्त के साथ हिल जाए ।
मैं तो ठहराव हूँ चकोर का जो चाँद को निहारता रह जाए।
 
मैं नुक्कड़ पे सुना कोई किस्सा नहीं,
जिसे तू यूं ही भूल जाए।
मैं तो वो सच हूँ जो तेरा हिस्सा बन जाए।
मैं कोई तारीख़ नहीं,
कि दिन के साथ बदल जाए ।
मैं wo तक़दीर हूँ जो बस तेरी हो कर रह जाए ।

 

मैं इकरार हू इंतज़ार का,
मैं वक़्त  का  एतबार हूँ।
मैं  सुर हूँ एक कव्वाल का,
मैं गुनगुनाती शाम हूँ।

 

मैं  ख्याल हूं बेखयाली  का,
मैं शोर हूं सन्नाटो का।
मैं सब्र हूँ रफ़्तार का,
मैं वो गली हूं बनारस की,
जहा तू अक्सर लौट के आए ।
जहा तू अक्सर लौट के आए ।

 

मैं आस नहीं,
सोच नहीं,
वादा  नहीं,
मैं करार  हूँ।

 

मैं शब्द नहीं,
शोर नहीं,
आवाज़ नहीं,
मैं साज़ हूँ।

 

मैं मोड़ नही,
बाज़ार नहीं,
किनारा नहीं,
मैं ठहराव हूँ।

 

मैं वो गली हूं बनारस की,
जहां तू अक्सर  लौट के आए ।
जहां तू अक्सर  लौट के आए।

 

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