मैं लिखूंगी तुम्हें

मैं लिखूंगी तुम्हें,
लिखती ही रहूँगी।
पेड़ से टूटे हुए एक पत्ते पर लिखूंगी,
आसमान में तैरते हुए उस बादल पर लिखूंगी।

जब ज़िंदगी की शाम आएगी,
किसी धुंदले से चेहरे को देख तुम्हारी याद आएगी।
एक दिन यूँ ही कही बैठे हुए,
अपनी किताब के एक पन्ने पर लिखूंगी तुम्हारा नाम।

मैं लिखूंगी तुम्हें।
लिखती ही रहूँगी।

कभी किसी दिन समुद्र किनारे,
रेत में अक्षरों को बना कर।
बिना लहरों की परवाह किए,
लिख डालूंगी हमारी कहानी।

मैं लिखूंगी तुम्हें,
लिखती ही रहूँगी।
किसी दिन बादल में लिखूंगी,
किसी दिन धूप में लिखूंगी।

किसी रात को,
जब चांद लगा होगा अपनी ही उधेड़ बुन में।
उसकी खूबसूरती का कुछ नूर अपने शब्दों में मिलाकर,
उस पहर में लिखूंगी हमारी कहानी।

मैं लिखूंगी तुम्हें।
लिखती ही रहूँगी।

कभी यू ही बारिश के महीने में,
खिड़की से मौसम को निहारते वक़्त ।
वहा पड़ी उन बूंदो को सहला कर,
उस खिड़की के शीशे पर लिखूंगी तुम्हारा नाम।

मैं लिखूंगी तुम्हें,
लिखती ही रहूँगी।
कभी खुशबू में लिखूंगी,
कभी ख्वाहिश में लिखूंगी।

 

मैं लिखूंगी तुम्हें,
लिखती ही रहूँगी।
हाँ, मैं लिखूंगी तुम्हें,
लिखती ही रहूँगी।

 

 

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